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योग -पंचकोष
आज के इस आधुनिक युग में अर्थ प्रधान हो गया है, और अर्थ को पाने का सबसे अच्छा साधन प्रत्येक शिक्षा के नाम पर ही डिग्रियों की धोखाधड़ी को ही मानने लग गया है, डिग्रियों से अर्थ की प्राप्ति तो हो सकती है, लेकिन डिग्री मात्र अच्छे जीवन की गारंटी नहीं की जा सकती। जब ऐसा सच स्वरूप, व्यक्तित्व, विकास शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। भारतीय ऋषियों ने ’व्यक्तित्व’ क्या है, और इसका विकास किस प्रकार किया जा सकता है, इस सम्बन्ध में अत्यन्त ही सजगता और गहन शोध से भारतीय तत्व को दर्शाया है।

लेकिन दुर्भाग्य है, देश का कि हम आधुनिकता के चक्कर में व्यक्तित्व व पर्सनेलिटी के समानार्थी होने की बात कहकर मात्र शरीर स्तर पर ही अच्छा कैसे दिखना को हो पर्सनेलिटी मान लिया तो प्रश्न खड़ा होता है, कि यह व्यक्तित्व विकास है क्या?

भारतीय मनीषी इसका उत्तर बहुत ही सुन्दर ढंग से देते हुए बताते हैं, कि प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व पंचकोषीय है, ये पंचकोष अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, मनोमय व आनन्दमय कोष तक क्रमशः शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त के स्वरूप को स्पष्ट करते है। इनका विकास करना ही व्यक्तित्व का विकास करना कहलाता है।

पंच कोषात्मक व्यक्तित्व की संकल्पना के अनुसार इन पंच कोषों को सामन्य रूप से हम शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा को संज्ञा के रूप में कहते है व्यावहारिक रूप में आत्मा को ही चित्त मानते है।

अर्थात् अन्नमय कोष शरीर, प्राणमय कोष, प्राण मनोमय कोष, मन, विज्ञानमय कोष बुद्धि और आनन्द मय कोष है चित्त। कोष का अर्थ है आवरण या स्तर। स्तर माने हमारे जीवन या तादात्म्य का स्तर जब हम अपने आपको जानना चाहते है और प्रश्न करते है कि मैं कौन हूँ। तब हमारा उत्तर शरीर प्राण, मन, बुद्धि और चित्त में से जिस स्तर से जुड़ा होगा तब यह मानना पड़ेगा कि हमारा तादात्म्य किस कोष से है लेकिन यदि वास्तव में हम चित्त से भी ऊपर उठकर ’’मैं आत्मा हूँ’’ ऐसा जानेंगे तब हम अव्यक्त होते है।

अन्नमय कोषः हमारा शरीर सबसे स्थूल रूप में अभिव्यक्त हुआ है, यह अन्न से शक्ति (ऊर्जा) पाता है और पुष्ट होता है अगर अन्न नहीं तो यह निर्बल हो जायेगा इसलिये इसे अन्नमय कोष कहते हैं। शरीर से ही हमारा सारा व्यवहार चलता है।

शरीर स्वस्थ व बलवान रहता है तो अन्नमय कोष ठीक है ऐसा माना जा सकता है। शरीर, निद्रा, व्यायाम और नित्य कर्मरत रहने से ठीक रहता है लेकिन शरीर कितना ही अच्छा हैं। फिर भी हम शरीर नहीं है शरीर रखता मात्र शारीरिक विकास है। शरीर मात्र एक साधन है साध्य नहीं।

प्राणमय कोषः शरीर संचालन करने वाली शक्ति (ऊर्जा) वह प्राण जीवनी शक्ति है जो शरीर से सूक्ष्म व शरीर के प्रत्येक तत्व में विद्यमान रहती है प्राण के आवेग आहार, निद्रा, भय और मैथुर ये चार है ये ही प्राण की धारणा के लिए मूल प्रवृतियाँ है इनके अभाव में जीवन (प्राण) संभव नहीं है। इसलिए प्राणमय कोष को व्यवस्थित रखना आवश्यक है लेकिन जब हम अपने आप को प्राणयुक्त शरीर मानकर उसके साथ तादात्म्य रखते हुए जीवन रक्षा हेतु सभी क्रियाएँ करते है तो हम प्राणमय कोष में जीते हैं। परन्तु वास्तव में तो हम प्राण नहीं हैं। हम तो आत्मतत्व हैं।

मनोमय कोष: मनोमय कोष मन से सम्बन्धित है। मन प्राण से भी अधिक सूक्ष्म है जो बिना किसी का भी अधिक सूक्ष्म है जो बिना किसी का भ उनालम्बन किये बिना रहता है मन, इच्छा, विचार करता है, चंचल है, शांत, उत्तेजित व तनावयुक्त हो जाता है। अपनी रूचि में आसक्त भी हो जाता है विकारी भी है बलवान तथा तेजवान भी है। मन की सभी प्रकार की अवस्थाओं का प्रभाव शरी पर पड़ता है। मन को एकाग्र, शांत व अनासक्त करना ही इसका विकास है सामान्य रूप में हम मन के साथ तादात्म्य करके जीते है मन पाने हम जब हम इस रूप में जीते है तो विकास पैदा होते है वह भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाती है।

विज्ञान मय कोष: मनोमय कोष से अधिक सूक्ष्म विज्ञानमय कोष है सामान्य रूप में हम इसे बुद्धि कहते है वह भी मन के समान बिना आलम्बन के रहती है। बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से निरीक्षण एवं परीक्षण करती है। निर्णय करती है जब हम अपने आपके बुद्धिमान समझने लगते है तो हमारा तादात्म्य बुद्धि के होता है और हम विज्ञानमय कोष में जी रहे होते है।

आनन्दमय कोष: विज्ञान मय कोष से भी अधिक सूक्ष्म व अधिक विस्तारित आनन्दमय कोष है। इसे चित्त भी कहते है यह चित्त ही है जो आत्मतत्व की अभिव्यक्ति का अनुभव करने हेेतु सर्व प्रथम रूप ग्रहण करता  है। इसलिए इसको आत्मिक स्तर कहते है शुद्ध आत्मतत्व तो इससे भी परे है चित्त का स्वभाव, आनन्द, प्रेम, सौन्दर्य, स्वतंत्रता व सहजता है लेकिन यह सुख, हर्ष, आशक्ति, अच्छा, बुरा, कामना, वासना, लोभ आदि से परे सहज आनन्द की स्थिति है आनन्दमय कोष।