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आज 21 वीं शताब्दी के इस दौर में मानव ने विकास के क्रांतिकारी आविष्कारों ने तो जीवन को मानों पंख लगा दिए है। व्यक्ति ने मशीनों की सहायता से जीवन को सुगम बना दिया है। आज हर प्रकारका कार्य आपके बटन दबाते ही यांत्रिक शक्तियों द्वारा पूर्ण हो जाता है। तो हम यह कह सकते है कि मानव ने विकास की ओर जबरदस्त कदम बढ़ाए है, परन्तु शारीरिक शिक्षा और मानव के शारीरिक विकास में आज विश्व पिछड़ता जा रहा है।

आज का आधुनिक युग कम्प्यूटर व तकनीक का युग है। इसका प्रभाव मानव पर यह पड़ रहा है कि आजकल के बच्चे हमारे देश के पारम्परिक ख्ेाल ने खेलकर कम्प्यूटर पर बैठकर खेलते रहते है। जिससे उनका शारीरिक विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है।

यदि आज विश्व को शारीरिक विकास में अग्रसर होना है तो बच्चों सहित युवा और वृद्धजनों को क्षमतानुसार शारीरिक योग व खेल खेलने की जरूरत है।

खेलकूद जीवन में अनेक गुणों का विकास करते है। इनसे शरीर चुस्त, फुर्तीला और बलिष्ट होता है। खेलों के द्वारा ही हमारी शारीरिक क्षमताओं का विकास सम्भव है। सुडौल और पुष्ट शरीर खेलों का उपहार है। खेलकूद शरीर को स्फूर्तिमय बनाने के साथ-साथ अनेक सामाजिक, मानसिक और राष्ट्रीय गुणों के निर्माण में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। शिक्षा संस्थानों में खेलकूद अनिवार्य है। खेलकूद का शारीरिक क्षमताओं के साथ गहरा सम्बन्ध है। खेलकूद शरीर को स्वस्थ और स्फूर्तिमय बनाए रखते हैं। खेलकूद के दौरान शरीर के लगभग सभी अंगों का व्यायाम हो जाता है। शरीर ही जीवन की मांसपेशियों को सुदृढ़ बनती है और काया निरोग रहती है। निरोग शरीर ही जीवन का सर्वश्रेष्ठ सुख है। रोगी शरीर वाला व्यक्ति जीवन में किसी सुख का भोग नहीं कर सकता है। स्वस्थ होने पर ही मनुष्य अपने दायित्वों का निर्वाहन और जीवन के सुखों का आनन्द प्राप्त कर सकता है। शरीर को स्वस्थ बनाने में खेलकूद की मूल्यवान भूमिका होती है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो मन भी स्वस्थ नहीं हो सकता। यदि मन हो गया तो नाना प्रकार की व्याधियाँ जीवन भर संतृप्त करती रहेगी। अतः यदि मन स्वस्थ रखना है तो शरीर भी स्वस्थ होना जरूरी है और शरीर भी स्वस्थ होना जरूरी है और शरीर को खेलकूद के जरीये ही स्वस्थ रखा जा सकता है।

      खेलकूद के जरीये ही व्यक्ति खेल के प्रति समर्पण के साथ खेल में निष्पक्षता, न्याय और हार-जीत दोनों को समान भाव से ग्रहण करता है। इसके साथ ही अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति सहज मैत्री भाव की भावना भी खिलाड़ी में विकसित होती है। एक सच्चा खिलाड़ी कभी भी निराश नहीं होता। उसमें अपरिमित साहस और लगन का समावेश होता है। वह कभी भी हताश नहीं होता। कभी-कभी तो इसी गुण के बल पर वह हारी हुई बाजी भी जीत लेता है। आदर्श खिलाड़ी खेल में पूर्णतः निष्पक्ष और ईमानदार रहता है, वह नियमों का पालन करता है। अपने विपक्षी की दुर्बलता का अनुचित लाभ उठाने का प्रयत्न नहीं करता साथ ही वह अपने प्रतिद्वन्द्वी से भी नियम पालन की अपेक्षा करता है।

      शारीरिक के जरिये खिलाड़ियों में सामूहिक खेलकूद की भावना का विकास होता है। इसका आशय है कि हर खिलाड़ी अपने पृथक-पृथक व्यक्तित्व को टीम के व्यक्तित्व में विलीन कर दे। टीम का प्रत्येक खिलाड़ी सम्पूर्ण टीम के लिए खेलता है। अपने लिए नहीं। ऐसे खेलों में हार या जीत टीम की होती है। किसी एक खिलाड़ी की जीत का इससे कोई संबंध नहीं है। अतः हर खिलाड़ी अभ्म की प्रतिष्ठा और उसे विजय दिलाने हेतू पूरी लगन से खेलता है। शारीरिक में सामूहिक एकता को साथ लेकर चलो। यदि कोई खिलाड़ी इस भावना में रहे कि वह अकेले ही प्रतिद्वन्द्वी टीम को हरा देगा, तो निश्चय ही इसे टीम भावना अभाव माना जायेगा। खेल के मैदान में ऐसी भावना घातक होती है और इस भावना के फलस्वरूप सारी टीम को पराजय और अपमान का सामना करना पड़ता है।

      खेलकूद के जरीये ही पारस्परिक सद्गुा का विकास होता है। खेल के मैदान में हर खिलाड़ी से यही आशा की जाती है कि अन्य खिलाड़ियों का सम्मान करता है और उनको प्रोत्साहित भी करता है। कर्त्तव्यनिष्ठा का सद्गुण श्रेष्ठ खिलाड़ी नहीं हो सकता। यदि कर्त्तव्य पालन में लगन की कमी हो तो उसे सफलता की आशा करना व्यर्थ है। खेल का मैदान एक तरह से प्रशिक्षण स्थल होता है, जहाँ खिलाड़ी अनेक उत्तम गुणों को सीखता है और उन्हें अपने व्यवहारिक जीवन में उतारता है। इन गुणों का सहायता से इन चुनौतियों का सामना करके सफलता प्राप्त सरल होता है। अतः हम यह कर सकते है कि हमें शारीरिक और मानसिकरूप से दृढ़ बनाने में खेलों की बहुत महत्ता है। इनकी सहायता से ही व्यक्ति के श्रेष्ठ पक्षों में निखार आता है।

शारीरिक शिक्षा – 

शारीरिक शिक्षा शब्द के श्रवणमात्र से मनुष्य अवगत हो जाता है कि इसका साक्षात् सम्बन्ध मानव शरीर (देह रथ) से है। यह मानव शरीर ईश्वर द्वारा प्रदत्त सबसे अनमोल वरदान है। इसकी सुरक्षा करना हमारा सबसे बड़ा कर्त्तव्य है। हम अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिस क्रिया का पालन करते हैं उसे शारीरिक शिक्षा कहते है। अधिकतर विद्यालयों एवं शिक्षण संस्थानों में एक वाक्य लिखा रहता है – ‘स्वास्थ्य  ही धन है’। यदि व्यक्ति स्वास्थ्य को खो देता है तो उसका जीवन नरकतुल्य हो जाता है। यदि हमारा शरीर स्वस्थ न हो तो हम किसी भी क्षेत्र में सफलता की ऊंचाई तक नहीं पहुँच सकते। शारीरिक शिक्षा से मानसिक शक्ति का विकास होता है, सौंदर्य में निखार तथा रोगों का निवारण होता है। यदि हम इसके महत्व को न समझें और हमें इसका सही ज्ञान न हो तो हम अपने शरीर की देखभाल ठीक से नहीं कर पाएंगे और हमारा शरीर स्वस्थ नहीं रह पाएगा।

प्राचीन काल में भी शारीरिक शिक्षा को बहुत महत्व दिया जाता था। उस समय लोग देशी व्यायाम किया करते थे। प्राचीन काल में शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य केवल शरीर को सुदृढ़ करना होता था। उस समय लोग बोझ ढ़ोने, शिकार करने, लकड़ी काटने, युद्ध करने आदि के लिए अपने शरीर  को मज़बूत बनाते थे। तीर अंदाज़ी, तलवार बाज़ी, घुड़सवारी, देशी व्यायाम, कुश्ती आदि शारीरिक शिक्षा में सम्मिलित था। जैसे-जैसे लोग विकास करते गए शारीरिक शिक्षा का उद्देश्य भी विकसित होने लगा। वर्तमान समय में विद्यालयों में फुटबॉल, बैडमिंटन, खो-खो, वालीबॉल, मलखम्भ, योगासन, प्राणायामादि द्वारा छात्र अपने शरीर को तो सुपुष्ट एवं सुदृढ़ करते ही है वहीं मानसिक विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि करके स्वयं को विद्यानुरागी बनाते है। विभिन्न क्रीड़ाओं द्वारा शरीर और अंतर्मन की क्लांति को शांति में परिवर्तित करते है। इस से ध्यान, एकाग्र, मन शांत तथा स्मरण शक्ति का विकास होता है। इसी विशेषता से आकर्षित होकर अन्य देशों  में इन व्यायामों का बड़ी तीव्र गति से प्रचार और प्रसार हो रहा है। वर्तमान समय में पूरी दुनियाँ में शारीरिक शिक्षा को बहुत महत्व दिया जाता है। शारीरिक शिक्षा से विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास होता है।


विद्यालय में करणीय विषयशः न्यूतम बिंदु निम्न प्रकार से है – 

  • 10 मिनट का अनिवार्य शारीरिक कार्यक्रम वन्दना-सत्र में होगा।
  • प्राथमिक कक्षाओं में 6 कालांश, माध्यमिक के लिए 3 कालांश तथा वरिष्ठ कक्षाओं के लिए 2 कालांश, प्रत्येक कालांश में 20 मिनट खेल, 15 मिनट समता एवं संचलन, साप्ताहिक एक कालांश में सूर्य नमस्कार का अभ्यास करना।
  • शारीरिक क्षमता मापन वर्ष में दो बार करना। (कक्षा 3 से 12 तक)
  • व्यायाम योग वन्दना-सत्र में प्रतिदिन करवाना।
  • कक्षा स्तर पर समता एवं संचलन की प्रतियोगिताएँ होगी।
  • वर्ष में एक ‘सूर्य नमस्कार महायज्ञ सप्ताह’ का आयोजन करना।
  • सप्ताह में एक दिन व्यायाम योग का सामूहिक अभ्यास करवाना।
  • सप्ताह में एक दिन समता का सामूहिक अभ्यास करवाना।
  • वर्ष में एक बार खेल दिवस, शारीरिक प्रदर्शन एवं साहसिक कार्यक्रम करना आपेक्षित हैं।